सम्पादिका
Abstract
बौद्ध जगत् में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत-वर्ष में सारनाथ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और पवित्रा तीर्थ-स्थल के रूप में परिगणित है, जहाँ भगवान बुद्ध ने ईसा पूर्व 588 के लगभग आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पंचवर्गीय भिक्षुओं को बौद्ध धर्म का प्रथम उपदेश दिया था, जोकि ‘‘धर्मचव्रफ प्रवर्तन’’ की संज्ञा से अभिहित किया गया। साथ ही श्रावण प्रतिपदा से लेकर आश्विन पूर्णिमा तक स्थिर रूप से सारनाथ में धर्म उपदेश देते हुए वर्षावास किया। दीक्षा लेने वालों में प्रथम वाराणसी का श्रेष्ठिपुत्र यश था, जिसकी माता सुजाता ने भगवान् को उस वेला में खीर दी थी जिसे खाकर उन्होने परमबोधि का साक्षात्कार किया था। बुद्ध के जीवन की चार महत्त्वपूर्ण घटनाएँ- जन्म, सम्बोधि, धर्मचक्र प्रवर्तन तथा महापरिनिर्वाण। कालान्तर में बौद्धानुयायियों के लिए ये चार महत्त्वपूर्ण तीर्थ-स्थल बन गये। लुम्बिनी में जन्म ग्रहण करने के पश्चात् बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे बुद्धत्व की सम्प्राप्ति हुई। तत्पश्चात् ध्र्मचव्रफ प्रवर्तन के लिए इसिपतन मिगदाय सारनाथ को चुना और सर्वप्रथम पंचवर्गीय भिक्षुओं को ही बुद्ध धर्म में दीक्षित किया जीवन की अन्तिम वेला में महापरिनिर्वाण के लिए कुशीनारा निर्वाण-स्थल बना। उन पंचवर्गीय भिक्षुओं की दीक्षा के अन्र्तगत चार आर्य सत्य जिन्हें समस्त धर्मो का मूल कहा गया है और जितने कुशल धर्म हैं वे सभी इन्हीं चार आर्य-सत्यों में निहित हैं (मज्झिम निकाय), मध्यम प्रतिपदा तथा अष्टांगिक मार्ग के रूप में जीवन की मूल समस्याओं व उनके समाधनों को समझाते हुए बौद्व धर्म की नीव रखी। यहीं सारनाथ में ही उन्होने संघ की भी स्थापना की।