पालि त्रिपिटक एवं अट्ठकथाओं में शील विमर्श
एक समीक्षात्मक अध्ययन
Abstract
पालि वाड़गमय और उसकी अट्ठकथाओं का प्रधान विवेच्य विषय षील है। षील बौद्ध साधना का आधार है। भगवान् बुद्ध एक बार जब श्रावस्ती के जेतवन में विहार कर रहे थे, तब एक रात्रि में एक देव पुत्र आकर उनसे प्रश्न किया:-
अंतो जटा वहि जटा जटाय जटिता पजा।
तं तं गोतम पुच्छामि, को इमं विजेटये जटंति।।
अर्थात भगवान अन्दर भी जटा (जंजाल) है, बाहर भी जटा (जंजाल) है यो यह समग्र प्रजा (प्राणि समूह) जटाओं से जकड़ी हुई है। भो गौतम! मैं आप से इस विषय में यह पूछता हूँ कि कौन इस जटा को छिन्न-भिन्न करने में समर्थ है।
उस देव पुत्र के प्रष्न को सुनकर तथागत ने उसे कहा:-
शीले पतिट्ठाय नरो सपञ्ञों चितं पञ्ञच भावयं।
आतापी निपको भिक्खु सो इमं विजटये जटंति।।
अर्थात जो बुद्धिमान पुरूष शील (सदाचार) को आधार बनाकर समाधि (चिŸा निरोध) एंव प्रज्ञा की भावना करता है, वही व्यक्ति उद्योगरत एवं क्रियाशील रहकर इस जंजाल को छिन्न-भिन्न कर सकता है।
“सील’’ पालि शब्द है जिसका अर्थ सदाचार है। संस्कृत में शील शब्द कई रूपों में व्याकृत एवं ब्युत्पन्न है। शील समाधाने धातु “धा” प्रत्यय होने पर शील शब्द ब्युत्पन्न होता है, जिसका अर्थ है समाधान = सम्यक आ़द्यान। ” शील अभ्यासे अतिशîेन च“ से शील अभ्यास के अर्थ में प्रयुक्त है - शीलनं शीलभिब्युत्तम।”
शील स्वभावे संत्कृते अर्थ के अनुसार शील का अर्थ स्वभाव या सदवृत है।