The Practice of Lojong in Kargyud tradition of Tibet

बौद्ध धर्म की कार्ग्युद परम्परा में लो-जोङ् साधना

Keywords: Tibetan Buddhism, Lam Rim teachings, Lojong, Kargyud tradition

Abstract

तिब्बत मे बौद्ध परम्परा का इतिहास लगभग1350 वर्ष पुराना है। सातवीं शताब्दी में तिब्बत के राजा ने भारतीय विद्वान शान्तरक्षित के परामर्श से पद्मसंभव को बुलवाया। पद्मसंभव ने तिब्बत के राजा स्रोङ-सेन गाम-पो के निमन्त्रण पर वहां जाकर बौद्ध धर्म का प्रतिष्ठापन किया था और तत्कालीन बोन परम्परा को भी बौद्ध धर्म में स्थान दिया। बौद्ध धर्म की इस आरम्भिक शाखा को ञीङ्-मा कहा गया जिसका शाब्दिक अर्थ पुराना अथवा पहले का है। कालान्तर में कई बौद्ध परम्पराएं विकसित हुईं जिनमें से तीन प्रमुख हैं यथा साक्या, का्रग्युद तथा गे-लुग। प्रस्तुत शोध-पत्र कार्ग्युद परम्परा में स्थापित लो-जोङ साधना का वर्णन है जो अन्य बौद्ध परम्पराओं में भी समादृत है। कार्ग्युद परम्परा का मूल भारत के सिद्ध परम्परा में नड़पाद (नारो-पा) से लिया जाता है तथा तिब्बत में मार-पा तथा मीला-रे-पा इसके पुरोधा है। कार्ग्यूद परम्परा में तन्त्र को पर्याप्त स्थान मिला है। परन्तु सूत्र का महत्त्व कहीं भी कम नहीं किया गया तता सूत्र एवं तन्त्र के समन्वय को अप्रतिम उदाहरण के रूप में लो-जोङ् की साधना का स्थान अपूर्व है क्योंकि यह गे-लुग परम्परा के लाम-रीम साधनाओं से साम्य रखती है। पस्तुत शोध-आलेख इसी दिशा में किया गया एक लघु प्रयास है।

Author Biography

Vijay Kumar Singh, Panjab University Chandigarh

Professor and Chairperson

Department of Chinese and Tibetan languages

Panjab University Chandigarh

 

Engaged in teaching and research guidance since 1994 in the subject specialization of Tibetan Buddhism and Theravada

Published
2019-07-31